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Poem: कब तक सम्भाले बैठोगे इस मैं को?


जाने भी दो अब

कब तक सम्भाले बैठोगे

इस मैं को

जो दूर करती है तुम्हें तुमसे ही!


कितनी फ़रेबी है, और चालबाज़ भी

स्वप्न दिखाती है जन्नत के

रखती है जहन्नुम में

और तुम आ जाते हो इसके बहकावे में!


एक बार ध्यान से तो देखो

इसकी असलियत को पहचानो

इतना भी मुश्किल नहीं।


दो आँखों की बजाय एक का प्रयोग करो।

साँस की गति धीमी करो!

देखो ये क्या सोचती है

देखो ये क्या करती है।


तुम्हें क्या लगा

तुम सोच रहे हो

तुम कर रहे हो!

इतने भोले भी ना बनो

कहाँ तुम

और कहाँ ये!


तुम्हारा बड़प्पन है

इसको इतना बड़ा बना दिया

और ख़ुद को इसका ग़ुलाम।

पर बहुत हुआ ये नाटक

अब बस भी करो।


क्या करने आए थे

क्या कर रहे हो!

और कितना भटकोगे

इस ख़्वाब में।

थोड़ा विश्राम करो

अपने आप में।


छोड़ दो

कब तक सम्भाले बैठोगे

इस मैं को

जो दूर करती है तुम्हें तुमसे ही!

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Anand आनंद
Anand आनंद
Nov 02, 2021

आनंद

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